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आरज़ू थी मेरे दिल की, कि कोई न मुझसे रूठे !
इस ज़िन्दगी में अपनों का, कभी न साथ छूटे!
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खुशियों का दुश्मन, जमाना क्यों बन बैठा !
जिसको भी चाहा, वही बेगाना क्यों बन बैठा !
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कभी ख्वाहिशों ने, फंसाया ज़िन्दगी को
तो कभी ज़रूरतों ने, रुलाया ज़िंदगी को !
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हमें तो हर कदम पर, ग़मों का ज़हर पीना पड़ा है
जीने की चाहत है मगर, घुट घुट कर जीना पड़ा है
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किसी से मोहब्बत हम, निभाएं तो कैसे निभाएं
हर तरफ हैं कांटे, खुद को बचाएं तो कैसे बचाएं
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रहना है इस शहर में, तो अपनी फितरत बदल डालो
#अजनबी शहर में, अपनी झूठ की इबारत बदल डालो
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लेते हैं हर चीज़ मेरी, अपना सामान समझ कर,
जब मांगते हैं हम, तो देते है अहसान समझ कर !
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इस #दिल में, मोहब्बत की शमा जलती रही ,
यादों का बोझ लिए, ये ज़िन्दगी चलती रही !
आता रहा जलजला ज़माने भर का लेकिन,
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फरेबियों को तो हम, अपना समझ बैठे
हक़ीक़त को तो हम, सपना समझ बैठे
मुकद्दर कहें कि वक़्त की शरारत कहें,
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ये दुनिया तो आखिर, हम छोड़ जाएंगे,
मगर चाहतों को, बदस्तूर छोड़ जाएंगे !
जिन्दा थे तो #याद करते रहे उनकी हम,
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